
तमिलनाडु में भाषा को लेकर राजनीति हमेशा से गर्म मुद्दा रही है। एक तरफ डीएमके हिंदी के खिलाफ नारे लगाती है, तो दूसरी तरफ उर्दू को बढ़ावा देने की बात करती है। उसकी ये दोहरी नीति दशकों से चली आ रही है। वो उर्दू को लेकर स्वीकार्यता दिखाती है, लेकिन हिंदी का नाम लेते ही भौंहे टेढ़ी करने लग जाती है। इस पूरे मुद्दे पर अब बीजेपी फ्रंट पर आ रही है और डीएमके को घेरने की कोशिश कर रही है।
उर्दू, हिंदू को लेकर डीएमके के दोहरे चरित्र को लेकर बीजेपी नेता के अमित मालवीय ने मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पर सवाल उठाए। अमित मालवीय ने स्टालिन के 2015 के उस वादे को याद दिलाया, जिसमें डीएमके नेता ने कहा था कि सत्ता में आने पर स्कूलों में उर्दू को अनिवार्य करेंगे और इसके लिए कानून बनाएँगे। मालवीय ने इसे ढोंग करार देते हुए पूछा कि जब हिंदी, मलयालम, कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं का विरोध हो रहा है, तो उर्दू को थोपना कहाँ तक ठीक है? उनका कहना था कि तमिलनाडु के युवाओं को मौके चाहिए, न कि भाषाई राजनीति।
The glaring hypocrisy of Tamil Nadu Chief Minister M.K. Stalin on language policy! His opposition to the three-language formula prescribed in the National Education Policy is nothing but political opportunism.In 2015, during his Namakku Naame campaign, M.K. Stalin assured the… pic.twitter.com/fxhmRV4KQK— Amit Malviya (@amitmalviya) February 26, 2025
डीएमके का हिंदी विरोध पुराना है। 1965 की हिंदी विरोधी आंदोलन की यादें आज भी ताजा हैं, जब द्रविड़ आंदोलन ने हिंदी को राज्य में लागू होने से रोका था। स्टालिन ने हाल ही में नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (एनईपी) के त्रिभाषा फॉर्मूले का विरोध करते हुए कहा कि तमिलनाडु फिर से भाषा युद्ध के लिए तैयार है। उनका तर्क है कि हिंदी जबरदस्ती थोपी जा रही है, जो तमिलों के सम्मान के खिलाफ है।
लेकिन सवाल यह है कि हिंदी को लेकर इतना हंगामा करने वाली डीएमके उर्दू को बढ़ावा देने में क्यों लगी है? क्या यह मुस्लिम वोटबैंक को खुश करने की चाल नहीं?
साल 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि ने भी उर्दू को बचाने के लिए कदम उठाने का वादा किया था। उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यक भाषाओं की रक्षा होगी। तब डीएमके ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन में यह बात कही थी। आज स्टालिन उसी रास्ते पर चलते दिख रहे हैं। हिंदी को ‘बाहरी’ बताकर खारिज करने वाली पार्टी उर्दू को लेकर इतनी नरम क्यों है? यह दोहरा रवैया साफ दिखता है। एक तरफ तमिल और अंग्रेजी को पर्याप्त बताकर त्रिभाषा नीति को ठुकराया जाता है, दूसरी तरफ उर्दू को लाने की बात होती है। यह तमिलनाडु की सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई कम, राजनीतिक फायदे की रणनीति ज्यादा लगती है।
बीजेपी का आरोप है कि डीएमके भाषा के नाम पर तुष्टिकरण कर रही है। मालवीय ने पूछा कि अगर हिंदी थोपना गलत है, तो उर्दू को बढ़ावा देना सही कैसे? तमिलनाडु के छात्रों का भविष्य दाँव पर है, जो हिंदी जैसी भाषा सीखकर राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन डीएमके की राजनीति उन्हें पीछे धकेल रही है।
स्टालिन कहते हैं कि वो हिंदी के खिलाफ नहीं, बस इसे थोपे जाने के खिलाफ हैं। पर उर्दू को लेकर उनकी चुप्पी और पुराने वादे इस दावे को खोखला बनाते हैं। क्या यह सिर्फ वोट की खातिर नहीं हो रहा?